
दूसरा मुनी : अरे भले भाइयों, इस धोती लंगोटी तथा रक्त मांस के अतिरिक्त हमारे पास कुछ भी नहीं । यदि इनमें से कोई वस्तु आपके महाराज के काम आ सकती है तो ले लो ।
तीसरा राक्षस : अरे हमें तो कर चाहिए कर । चाहे फोड़ दो अपने सर ।
चौथ राक्षस : अरे इस बूढ़े का तो फिर गया है सर । हमें तो कर चाहिए कर ।
तीसरा मुनी : अच्छा आई, तो हम अपना रक्त ही दे देते हैं ।
राक्षस : अच्छा रक्त ही सही ।
( सब मुनियों का अपनी अपनी अंगुलियों का रक्त एक घड़े में निकालना और घड़े को राक्षसों को देना )
सब मुनि : अच्छा भाइयो अपने महाराज से कहना कि यह हमारा रक्त पूर्ण घड़ा है, इस घड़े का मुंह खुलते ही तुम्हारा परिवार सहित नष्ट हो जाएगा तथा यह रक्त तुम्हारे सर्वनाश का कारण बनेगा ।
सब राक्षस : वो बेड़ा पार हो जायेगा ।
("रावण दरबार" राक्षसों का रक्त लेकर जाना )
रावण : मंत्री जी हमारे दूत जो राज्य कर लेने गये थे, वे अभी वापस नहीं लौटे ?
मंत्री : महाराज वह देखिए सामने से वही आ रहे हैं (राक्षसों का प्रवेश)
रावण : रे रे दूत कहाँ तुम धाए, दण्ड रिसिन से क्या तुम लाए ।
यह घट को केहि कारण लानो, भेद न याको मैं कछु जानो ।
ऐ मेरे बहादुरो कहो तुम ऋषियों से कर के रूप में क्या लाये हो ?
पहला राक्षस : महाराज सुनिए , म.... म.... म.... म.....{चुप हो जाना}
दूसरा राक्षस : महाराज याद आया {कुछ ठहर कर} भूल गया महाराज
रावण : {जोर से} सीधी तरह बताते हो या मार खाते हो ।
तीसरा राक्षस : महाराज मुनियों ने कहा है कि रावण को यह घड़ा देकर कहना कि इस घड़े का मुख खुलते ही तुम्हारा सर्वनाश जायेगा।
रावण : {भयभीत होकर} क्या कहा बेड़ा पार हो जायेगा ?
सब राक्षस : नहीं, नहीं महाराज, सर्वनाश हो जायेगा ।
रावण : यह घट ले उत्तर दिशि जाओ ।
यतन सहित वहां गढ़ि आओ ।
अच्छा जाओ और इस घड़े को उत्तर दिशा में राजा जनक की राजधानी में गाड़ आओ ।
( राक्षसों का प्रार्थना। "जंगल में मुनियों का स्तुत करना" )

जय-जय सुरनायक जन सुख दायक, प्रगत पाल भगवन्ता ।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी, सिन्धु सुता प्रिय कंता ॥
पालन सुर धरनी अदभुत करनी, मरम न जाने कोई ।
जो सहज कृपाला दीन दयाला, करो अनुग्रह सोई॥
जय अविनाशी घट घट वासी, व्यापक परमानन्दा ।
अविगत गो तोता चरित पुनीता, माया रहित मुकन्दा ॥

{आकाशवाणी}-हे ऋषियों निर्भय रहो, मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, और तुम्हारे दुख निवारण के लिए महाराजा दशरथ के घर में जन्म लूंगा इस हेतु अब तुम ऋष्यमूक पर्वत पर जाकर बानर रूप धारण करो।
( सब मुनियों का जय-जयकार करना )
("दशरथ दरबार" दशरथ निःसन्तान होने की चिन्ता में व्याकुल हैं, सुमन्त भी बैठे हैं )

दशरथ : पल-पल ढल ढल ढल गई सारी, दुनियां से महरूम चले हैं ।
धन दौलत अरु माल खजाना कुछ दिन में सब होत विगाना ।
जीवन के दिन झूम चले हैं, पल पल ढल ढल............
स्याही गई सफेदी आई, कुछ उम्मीद न देत दिखाई ।
जीवन के दिन झूम चले हैं । पल पल ढल ढल........
वाह वाह क्या गति तेरी विधाता, दशरथ जग से निराशा जाता ।
रीत निज मकसूम चले हैं । पल पल ढल ढल........
हे भगवान क्या मेरे भाग्य में यही लिखा था कि मैं इस संसार से इसी प्रकार निराश होकर जाऊं । शोक ! सूर्यवंश की समाप्ति का कलंक का टीका क्या मेरे ही मनहूस माथे पर लगना था, प्रभो ! आपके भंडार में तो किसी वस्तु की कमी नहीं परन्तु यह मेरा प्रारब्ध ही है ।
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