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पितृ भक्त श्रवण कुमार भाग-2





       मैंने जालिम तेरा क्या बिगाड़ा तीर सीने में क्यों तूने मारा । 

       पेड़ के नीचे हैं जल के त्रासे , वृद्ध माता पिता मेरे प्यासे ।

       शुष्क कंठ हैं हाय बिना जल के तूने अन्धों की लाठी को तोड़ा । 

       तडफेंगे वो अकेले वनों में प्राण दे देंगे रो - रो के क्षण में ।।

       कौन जाएगा जल उनको देने , तूने अन्तिम सहारा भी तोड़ा ।

       श्रवण श्रवण पुकारते होंगे , तूने अन्धों की लाठी को तोड़ा ।।     

दशरथ   : हे भगवान क्या यह घोर कलंक का टीका मेरे ही मनहूस माथे पर लिखा था । मुझे यह कौन से पापों का  प्रायश्चित मिला है । (श्रवण से) संसार को मातृ - पितृ की सेवा सिखाने वाले उज्ज्वल रन उठो । मुझे क्षमा करो, मैंने ही अज्ञानतावश यह अपराध किया है । भगवान आप ही अपने दण्ड से मेरे प्राणों का अन्त कीजिए मैं ही इसका अपराधी हूँ । 

श्रवण     : राजन् जो कुछ विधि ने भाग्य में लिखा था वह तो पूर्ण हो गया । आप दुखित न होइए तथा इतना कीजिए कि यहाँ से कुछ दूरी पर मेरे अन्धे माता - पिता प्यासे बैठे हैं आप केवल इतनी कृपा कीजिए  कि उनको जल पिला दीजिए (करवट लेकर) आह अति तीव्र पीड़ा हो रही है । कृपया इस बाण को निकाल दीजिए और शीघ्र जल ले जाकर उन्हें पिला दीजिए । आह ! ( दशरथ बाण निकालता है ।) आह ! पिताजी आह ! माताजी ( प्राण त्याग देता है । ) 

दशरथ  : है । श्रवण ईश्वर के वास्ते मेरी दशा पर दया करो । 

सत्यकीर्ति : हैं ! हैं ! यह क्या ? संसार को माता - पिता की भक्ति सिखाने वाले श्रवण क्या इस संसार से चल बसे । बिधाता तेरी लीला अपरम्पार है । 

दशरथ  : सेनापति जी मैंने सोचा था, कि जब श्रावण माता - पिता की तीर्थ यात्रा कराकर आएगा तो ऐसे पुत्र रत्न को धूमधाम से हाथी पर बिठाकर नगर के बाजारों में भ्रमण कराकर उसके हाथों से  में अनेकों दान व यज्ञ करवाऊंगा, किन्तु सब करा कराया धूल में मिल गया । रक्षक होने पर भी मैं दशरथ , भक्षक बन गया ।

भगवान कुछ उपाय करो , जिससे मेरा उद्धार सके । 

दशरथ  : हैं ! यह मार्मिक करुण स्वर में कौन श्रवण को पुकारता है ( कुछ सोचकर ) सम्भवतः उसके माता - पिता व्याकुल होकर अपने पुत्र श्रवण को पुकार रहे हों, उचित यही है कि श्रवण के माता - पिता की इच्छा पूर्ण करूं । सत्यकेतु तुम यहीं पर रहो मैं श्रवण के माता - पिता को पानी पिलाकर आता हूँ । 

सत्यकेतु : जो आज्ञा महाराज । 

             चलते हैं सत्य वाक्य सदा, पर झूठे दांव नहीं चलते ।

             दशरथ तो चलता है, लेकिन दशरथ के पाँव नहीं चलते ॥ 

शांतनु   : {पद ध्वनि सुनकर} बेटा तुम आ गए ? 

ज्ञानवती : बहुत देर लगाई बेटा ! क्या जलाशय दूर था ?

शांतनु   : बेटा तुम बोलते क्यों नहीं ? 

दशरथ  : {कम्पित स्वर में} माताजी , पिताजी जल पीजिए । 

ज्ञानवती : बेटा श्रवण, आज तेरी आवाज भारी क्यों है । तू श्रवण ही है या कोई अन्य ? 

दशरथ  :  {स्वगत} हाय ! अब क्या करूं। क्या झूठ बोलूं, नहीं - नहीं दशरथ कभी झूठ नहीं बोलेगा । {प्रकट} माताजी - पिताजी मैं श्रवण नहीं हूं बल्कि अयोध्या का राजा दशरथ हूं । माता जी पिताजी जल पीजिए ।

ज्ञानवती : मैं तो पहले ही समझ गई थी कि यह मेरे श्रवण की आवाज नहीं है । {दशरथ चुप रहते हैं ।} 

शांतनु   : क्यों ? चुप क्यों हो । मेरा श्रवण कहाँ है । वह तो जल लेने गया था । 

दशरथ  : {स्वगत} अब निश्चय तो कर ही लिया है कि झूठ नहीं बोलूगा {प्रकट} देव ! अब आपका श्रवण इस संसार में नहीं है । उसकी मृत्यु हो गई । मुझे क्षमा कीजिए देव । 

ज्ञानवती : क्या कहा , मृत्यु हो गई ! 

दशरथ  हां मृत्यु हो गई । वह भी मुझ अभागे के हाथों से । जब वह सरयू में जल भर रहा था तो धोखे से मैंने बाण चला दिया उस घातक बाण से आपके श्रवण का अन्त हो गया । अब मुझे क्षमा कीजिए देव ।

ज्ञानवती : हाय मेरा सहारा, बेटा श्रवण।

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