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पितृ भक्त श्रवण कुमार भाग-1

                                                                                "पितृ भक्त श्रवण कुमार " 

                                           

 

दशरथ    : मन्त्री जी कहिए , समस्त प्रजा में सर्व प्रकार से शांति तथा सुव्यवस्था तो है । 

मंत्री        : नरेन्द्र की जय हो । प्रजा के हृदय पर सुख शान्ति तथा आपकी सुव्यवस्था का एकछत्र राज्य है ।

 (नैपथ्य से श्रवण कुमार की जय । पित्र भक्त श्रवण कुमार को जय - जय होना, तथा द्वारपाल का प्रवेश ) 


द्वारपाल  : महाराजाधिराज कौशल नरेश की जय । 

दशरथ    : कहो द्वारपाल क्या श्रवण कुमार आ रहा है ? 

द्वारपाल  : हाँ राजन ! श्रवण कुमार आपके दर्शन हेतु आया है , यदि आज्ञा हो तो उन्हें ले आऊँ । 

दशरथ    : अवश्य । मैं ऐसे पितृभक्तों को देखकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ । 

         ( द्वारपाल के साथ श्रवण का प्रवेश कर प्रणाम करना ) 

दशरथ    : कहो श्रवण , आपके माता - पिता तो कुशल से हैं न ? 

श्रवण      : महाराज की राजधानी में हमें क्या कष्ट हो सकता है । महाराज किन्तु ? 

दशरथ    : हाँ , हाँ कहो । जो कहना हो निःसंकोच कहो । 

श्रवण      :  देव , मेरे माता तथा पिता जी तीर्थाटन हेतु कह रहे हैं । इस हेतु अपकी आज्ञा चाहता हूँ । 

दशरथ    : मुझे खुशी है, तुम्हें रथ, हाथी, घोड़े, पालकी तथा जितने धन की आवश्यकता हो, सो ले जा सकते हो । तुम जैसे माता - पिता सेवक को मैं अपना यह राज्य मुकुट भेंट करने से संकोच नहीं करूंगा । 

श्रवण      : मैं धन्य हो गया राजन ! केवल आप तीर्थाटन की आज्ञा देकर मुझे कृतार्थ कीजिए । अन्य वस्तुओं की जब आवश्यकता होगी तो सेवक अवश्य आकर प्रार्थना करेगा । 

दशरथ    : अच्छा श्रवण जाओ सूर्यदेव आपकी यात्रा को सफल बनाएं ।

      ( भवण का प्रणाम करना तथा नेपथ्य मैं श्रवण की जय - जयकार होना ) 

दशरथ    : मंत्री जी आज मृगों द्वारा मनोरंजन की तीब्र इच्छा हो रही है । 

मंत्री        : अति उत्तम विचार है महाराज । हम सब आपकी सम्मति से सहमत हैं । 

दशरथ    : अति उत्तम, यदि आप सभासदों की यही राय है तो सेनापति जी आप आवश्यक चीजों का शीघ्रातिशीघ्र प्रबन्ध कीजिए । 

सेनापति : आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । [ प्रस्थान ] 

श्रवण      : अच्छा आज की सभा यहीं पर विसर्जित की जाय । 

मंत्री        : जो आज्ञा महाराज ।   

               ( दृश्य जंगल, शान्तनु, ज्ञानवती तथा श्रवण बैठे हैं ) 

शान्तनु   : बेटा श्रवण सूर्य के प्रखर ताप ने हमारे कंठ सुखा दिए हैं । क्या कोई जलाशय समीप होगा । 

श्रवण      : अभी जाता हूँ पिता जी आप चिंता न करें । मैं अभी जल की तलाश करता हूं और आपके लिए शीघ्र जल लेकर आता हूँ । 

ज्ञानवती : बेटा श्रवण जल्दी ही जल लेकर आना ।

श्रवण      : जो आज्ञा माता जी । आप चिंता न करें । 

                ( दशरथ का सेनापति के साथ शिकार खेलते हुए ) 

दशरथ    : सेनापति जी मृग तृष्णा का यही समय है हमें सतर्क रहना चाहिए । ताकि शिकार भाग न जाय ।

सत्यकीर्ति : अति उत्तम है महाराज ( ध्यान से कान लगाकर ) महाराज सुनिए, इस ओर से कोई शब्द सुनाई दे रहा है । 

दशरथ    : हाँ सेनापति जी हमें इसी ओर चलना चाहिए ।

सत्यकीर्ति : महाराज ! चलिए तथा धनुष बाण सम्भाल लीजिए ।

                 ( राजा दशरथ बाण उसी ओर चलाते हैं बाण श्रवण  की छाती पर लगता है ।)

श्रवण       : आह ! वाह ! आह ! किस दुष्ट ने छिपकर बाण मेरे सीने में मारा है हाय मेरे अन्धे - पिता माता का सहारा छीन लिया । हाय माता जी बाह ! वाह ! पिता जी आपका श्रवण अपको पानी न पिला सका । ओ पापी तू कौन है । 

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