
दशरथ : {स्वगत} ओहो ! अब क्या करूं ! श्रवण के माता - पिता को कैसे धैर्य बंधाऊँ ! {प्रकट} उठो माता जी, उठो, जो कुछ होना था सो हुआ । अब आज से आप मुझे ही अपना श्रवण समझो , अब जल पीजिए महाभाग्य ।
शांतनु : जल - जल की रट लगा रखी है । कान खोलकर सुनो । अब हम तेरी सरयू का जल ग्रहण नहीं करेंगे ।
जल देने आये हो राजन, पर मेरे जलदाता को मार दिया।
जीवन और मरण के साथी, प्यारे पुत्र को छीन लिया ।।
दशरथ : आह ! अब क्या करूं वृद्ध माता - पिता को तो जल पिलाना ही होगा । माता - पिता जल पीजिए ।
शांतनु : फिर वही जल जल की रट, अच्छा तो ला (दशरथ पानी का पात्र देता है शांतनु जल हाथ में लेकर दशरथ को श्राप देते हैं ) और सुन !
आज श्राप देता हूं सुन ले सत्य वाणी होगी मेरी ।
इसी भाँति पुत्र वियोग में, मृत्यु वृद्धपन में होगी तेरी ॥
आह ! श्रवण ! " बेटा !
दशरथ : हैं ! यह क्या हुआ, यह तो दूसरी हत्या भी हो गई, किन्तु इतनी तो शांति मिली कि ऋषि मुझे श्राप दे गए हैं, जो कि मुझे स्वीकार है । इस श्राप से हीमेरे हृदय को कुछ शांति मिलेगी । यद्यपि यह अपराध मैंने अज्ञानतावश किया तथापि ऋषि जी का श्राप शिरोधार्य है । {ज्ञानवती के पास जाकर} माताजी जल पीजिए ।
( ज्ञानवती अपने पति को टटोलती है तथा उसे मरा हुआ समझकर रोते हुए दशरथ को श्राप देती है । )
ज्ञानवती : हे राजन ! आज मेरे ही सम्मुख मेरी नयन ज्योति एवं मेरा सौभाग्य एक साथ अस्त हो गए । इसलिए मेरा भी श्राप लो, "जिस प्रकार मेरे पति और पुत्र की लाशें बिना क्रिया क्रम के पड़ी हैं, इसी प्रकार पुत्र होने पर भी बिना क्रिया क्रम के अयोध्या में पड़ा रहेगा और यथा समय पर तेरा दाह संस्कार नहीं हो सकेगा ।" हाय श्रवण ! प्यारे श्रवण ! स्वामी - स्वामी !
हे पति देव जहाँ तुम जाते हो दासी भी वहीं पाता है ।
हे पुत्र जहाँ तुम जाते हो तेरी माता भी वहीं पाती है ।।
दशरथ : माता भी मर गई, यह तीसरी हत्या हो गई, सती तुम्हारा श्राप भी मुझे स्वीकार है, यह तो श्राप नहीं मेरा शांति का अनुष्ठान है । ऐ आकाश के तारों तुम भी मुझ पर हंस रहे हो,अच्छा हंसो, और खूब हंसो, अभागे दशरथ के कर्मों पर आनन्द मनाओ, हैं ! हैं ! पवन भी सुगन्धित हो रही है । क्या देवता इस घटना से प्रसन्न हैं । या मैं भ्रम में हूं, वह कौन है जो श्रवण को पुकार रहा है, यह देखो श्रवण व उसके माता-पिता की मूर्ति मेरे सामने खड़ी है । {चारों ओर देखना व यमराज का प्रवेश} नहीं, कुछ नहीं यह तो भ्रम है । {यमराज की ओर इशारा करके }हैं ! यह मैं क्या देख रहा हूँ, तुम कौन हो, जो कि मेरी ओर बिना हिचकिचाहट के आ रहे हो ?

यमराज : अवधेश मैं यमराज हूँ, यहाँ कुछ प्राणियों के प्राण लेने आया था परन्तु प्रतीत होता है कि यह मेरे अधिकार से बाहर है यह तीनों स्वर्ग के यात्री हैं । इसी लिए अब धर्मराज बन जाता हूँ ।
(धर्मराज के रूप में प्रकट होना)

दशरथ : प्रभो यह कैसा परिवर्तन है ! उस भयानक मूर्ति के सामने धर्मदेव के दर्शन कैसे ?
धर्मराज : अवधेश भ्रम में न पड़ो, मैं पापियों के लिए यमराज हूँ और धर्मात्मा के लिए धर्मराज, यह दोनों रूप मेरे ही हैं ।
दशरथ : धन्य देव ! मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिए, श्रवण और उसके माता-पिता को छोड़ दीजिए, नहीं तो दशरथ इनके वियोग में बावला होकर अपने प्राणों का अन्त कर देगा ।
धर्मराज :अवधेश ! यह कार्य भी मेरी सामर्थ से बाहर है । मैं इन तीनों के प्राण नहीं छोड़ सकता तथा अपको यही राय दूंगा कि आप इन तीनों प्राणियों का शोक छोड़कर अपनी राजधानी में चले जाएं। अन्यथा आपकी प्रजा में बिना राजा के त्राहि - त्राहि मच जाएगी तथा सारी प्रजा का नाश हो जाएगा।
(धर्मराज का अन्तर्धान हो जाना)
दशरथ : (पागलों की भांति) देव ! देव ! मुझे अपने ही साथ लेते जाइए ।
(विष्णु का प्रवेश)
विष्णु : राजन ! यह क्या कर रहे हो, बावले न बनो, क्या तुम भूल गए अपने ऋषिपन को, अपने शान्ति और अनुष्ठान को, क्या तुम्हें अपने बरों का स्मरण नहीं ?
दशरथ : क्षमा ! नाथ क्षमा ! मुझे क्षमा कीजिए ।
विष्णु : अच्छा , आप ऋषि विश्वामित्र जी के पास जाइए और उनसे अपने पूर्व जन्म की कथा सुनिए उससे तुम्हारे सारे भ्रम दूर हो जाएंगे ।
(विष्णु का अन्तर्धान होना)
दशरथ : जो आज्ञा देव, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है ।
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