मारीच : जा-जा रे बुड्ढे ! बकवास बन्द कर और अपने सूर्यवंशी को बुला ला । जिसको तू याद करता है । मेरा नाम मारीच नहीं अगर मैं उसकी भी चटनी बनाकर न खाऊं ।
( मुनि विश्वामित्र का प्रस्थान )

दशरथ : मंत्री जी सब कर्मचारी आये और अपने-अपने कार्य का विवरण सुनाएं ।
मन्त्री : महाराज इस समय सारी प्रजा प्रसन्न है । सब अपने-अपने कार्य को चतुरता से कर रहे हैं और सब प्रकार आनन्द ही आनन्द है ।
द्वारपाल : मुनि विश्वामित्र जी आये हुए हैं, वे द्वारे पे आसन लगाये हुए हैं ।
न रौनक है मुख पर न आंखों में लाली, ओ मुरदासी सूरत बनाये हुए हैं ।
होता है चेहरे से प्रतीत उनके, कि किसी के सताये हुए हैं ।
द्वारपाल : महाराज मुनि विश्वामित्र जी द्वार पर विराजमान हैं यदि आज्ञा हो तो उन्हें अन्दर बुला ले आऊं ।
दशरथ : क्या कहा ! मुनि विश्वामित्र जी आए है ? मन्त्री जी जाओ उन्हें आदर सहित अन्दर ले आओ ।
मन्त्री : जो आज्ञा महाराज ।
( मुनि विश्वामित्र का प्रवेश )
दशरथ : केहि कारण आगमन तुम्हारा, कहहु ओ करत न लावउं द्वारा ।
कृपा कीन मोहिं दीन बड़ाई, कीन पवित्र मोर गृह आई ।
ऋषिवर मेरे अहोभाग्य हैं जो आपने दीन को आकर दर्शन दिया और मेरे गृह को अपने कमलरूपी चरणों से पवित्र किया । कहिए सेवक के लिए क्या आज्ञा है ?
विश्वामित्र : ए महाराज दशरथ दुहाई तेरी, हम फकीरों का अब यहां गुजारा नहीं ।
कष्ट मिलता हमें रात-दिन इस कदर, जो हमारे से जाता सहा ही नहीं ।
कोई अपराध हमने न तेरा किया, त्याग बस्ती को जंगल में डेरा किया ।
उस किनारे पे जाकर बसेरा किया, रहना यहाँ भी हमारा गंवारा किया ।
क्षत्रिय वंश का अंश जाता रहा, इसलिए हमको हर एक सताता रहा ।
अन्धेर और महा अन्धेर, प्रजा लुटा करे और आपके कानों तक खबर ही नहीं । राजन आपके गंगापार के इलाके में राक्षसों ने उतपात मचा रखा है, ऋषियों का वध किया जा रहा है । कल ही यात्रियों सहित स्त्री-बच्चों को लूटा गया, कितने ही बेचारों की जानें गयीं, कितनों के सर फोड़े गये, तथा सारा प्रान्त मारीच द्वारा लूटा जा रहा है ।
विश्वामित्र : मैं यज्ञ जिस समय करता हूं, मुझे कष्ट निसाचर देते हैं,
पूजा सामग्री, हवन कुण्ड, सब नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं,
असुरों के अत्याचारों से उकताया हूं घबराया हूं,
रक्षा सहायता यह दो पदार्थ, मैं तुमसे लेने आया हूं ।
दशरथ : हैं ! हैं ! मेरे राज्य में अन्धेर, खोरी, चोरी , नहीं बलि सीना जोरी । जब मेरी प्रजा इस प्रकार दुखित है तो मेरा जन्म धिक्कार है । मैं अभी जाता हूं और आपके देखते-देखते उन दुष्टों की मिट्टी ठिकाने लगाता हूं ।
विश्वामित्र : राजन ! आपको कष्ट करने की आवश्यकता नहीं, आप राम और लक्ष्मण को मेरे साथ भेज दीजिए, मैं इस अवस्था में आपको कष्ट नहीं देना चाहता ।

दशरथ : मुनिनाथ ! आप ही की कृपा से मैंने इस अवस्था में पुत्र पाये हैं । यदि इनको मैं आपको दे दूं तो मेरा जीवित रहना इस संसार में असम्भव है । इसलिए आप इनके बदले मेरा सारा राज्य भी ले लें तो मैं देने को तैयार हूँ ।
विश्वामित्र : {गुस्से में} राजन ! तुम्हारे इन शब्दों से कायरता की बू टपक रही है और आप व्यर्थ की बातें बनाकर समय को हाथ से गंवा रहे हैं । यदि आप दे सकते हैं तो राम और लक्ष्मण को दे दीजिए, अन्यथा मुझे आपकी सेवा की जरूरत नहीं ।
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