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श्री राम का अहिल्या श्राप को से मुक्त करना

 

राम : {पत्र खोलकर} श्री ऋषि विश्वामित्र जी, सादर प्रणाम । अत्र कुशलम् तत्रास्तु । सविनय निवेदन है, कि मेरी पुत्री सीता का स्वयंवर तिथि: को होना निश्चित हुआ है । 

      अतः आपसे सनम्र निवेदन है कि आप निश्चित तिथि पर पधार कर अपने कमल रूपी चरणों से सेवक के यज्ञ को पवित्र करने की कृपा कीजिएगा ।                                                           

                                                                                                                                               धन्यवाद

                                                                                                                                     आपका दर्शनाभिलाषी                                                                                                                                              जनक मिथसापुरी राम  : गुरुजी ! आज्ञा हो तो हमें भी साथ ले चलने की कृपा कीजिए, 

विश्वामित्र : हां बेटा राम, बड़ी खुशी से तैयारी करो, तुम्हारे ही लिए तो स्वयंवर रचाया गया है । हम तो केवल देखने वालों में से  हैं । 

राम  : बहुत अच्छा मुनि जी चलिए । 

लक्ष्मण :मुनि चलना जनकपुरी होके चलो, राजा जनक की कन्या कुंवारी, 

             उसका स्वयंवर रचाते चलो । मुनि चलना..... 

             राजा जनक का प्रण है भारी, उनके प्रण को निभाते चलो मुनि...... 

             राजा जनक घर धनुआ पुराना, उसका भी चिल्ला चढ़ाते चलो...... 

             राजा जनक घर भूपति आये, उनका भी मान बढ़ाते चलो.... 

( राम लक्ष्मण का विश्वामित्र के साथ जाना तथा रास्ते में शिला का दिखाई देना और राम पूछते हैं । )

राम : केहि कारण यह शिला गुसाई, मोहि कहो सब कथा सुनाई । 

          दीखे यह आश्रम तप धामा, केहि कारन भई शिला ललामा । 

मुनि जी हमें यह बताइए कि यह शिला क्यों पड़ी है ? और इसका उद्धार कैसे होगा ? 

विश्वामित्र : गौतम नारी श्राप वश, उपल देहि घर वीर । 

                  चरण कमल रज चाहती, कृपा करहु रघुवीर । 

विश्वामित्रगौतम ऋषि एक महा मुनीसा, यह उनकी पत्नी जगदीशा । 

                 विन अपराध श्राप मुनि दीना, नाम अहिल्या परम प्रवीना । 

बेटा यह गौतम ऋषि की धर्म पत्नी अहिल्या है । मुनि जी ने बिना अपराध के इसे श्राप दिया, जिससे यह पत्थर की हो गई है । अब केवल तुम्हारे चरणों के धूल की प्यासी है । जिस धूल के प्रभाव से इसका उद्धार होगा । इसलिए बेटा इस पर चरण-स्पर्श करके कृपा कीजिए । 

राम : किंतु मुनिनाथ, स्त्री पर चरण-स्पर्श करना महा पाप है ।  

विश्वामित्र : नहीं बेटा ! दूसरों की भलाई में कोई पाप नहीं है ।

राम : जो आज्ञा मुनिनाथ । 

( राम शिला पर पैर से छूते ही शिला रूपी अहिल्या आरती करती है )


 आरती : राम अवतार मुझे श्राप से छुड़ाई हैं । २ 

               स्वर्ग में जाऊं, पद पाऊं, नहिं आऊं फिर से, 

               जय जय जय श्री राम सुखदाई हैं । 

               राम अवतार मोहे.......... {अहिल्या आरती करते-करते लीप हो जाती है} 

( राजा जनक का दरबार ) 

जनक : मन्त्री जी बाहर से जो मेहमान आये हैं उनके रहने के लिए उचित प्रबन्ध किया जाय । 

मन्त्री : जो आज्ञा महाराज ।  

द्वारपाल : महाराज, मुनि विश्वामित्र जी दो राजकुमारों सहित पधारे हैं । आज्ञा हो तो बुला लाऊं । 

जनक : बहुत अच्छा, मैं स्वयं उनके स्वागत के लिए चलता हूं । 

जनक : मुनि जी मेरे अहोभाग्य हैं जो कि आपने सेवक को कृतार्थ किया । क्या मैं इन दोनों कुमारों का परिचय जान सकता हूं । 

विश्वामित्र : हां महाराज, ये दोनों राजकुमार अयोध्या के राजा दशरथ के होनहार बालक हैं । इनका नाम राम और ये उनके छोटे भाई लक्ष्मण हैं । 

जनक : मन्त्री जी मैं महलों में जाता हूं, तुम मुनि जी तथा राजकुमारों को ठहराने का उचित प्रबन्ध करो । 

मन्त्री : जो आज्ञा । 

विश्वामित्र : बेटा राम और लक्ष्मण, तब तक तुम जनकपुरी की शोभा देखकर आओ और बाते समय पुष्पवाटिका से पूजा के लिए फूल लेते आना । 

राम : जो आज्ञा मुनिनाथ । हमारी भी यही इच्छा है कि इस नगर की शोभा देखें । 

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