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जब रावण कैलाश पर्वत को उठाता है तो क्या होता है

         ( रावण का कैलाश पर्वत उठाना, महादेव पार्वतो बैठे हैं ) 


रावण   : देखो ऐ लोगों तुम मेरे बल को, कैलाश पर्वत उठा रहा हूं । २ लंकापुरी में ले जा रहा हूं । देखो ऐ ..... 

पार्वती  : स्वामी डर लागे कांपे मोरी काया । २ हिले वृक्ष डरे सब वनचर, स्वामी किन ये शैश उठाया । स्वामी डर ..... 

प्राणनाथ सारा कैलाश हिल रहा है । पशु पक्षी भय से इधर-उधर भाग रहे हैं । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कोई सारे कैलाश को उठा रहा है । 

शिव    : प्रिये ! यह उस दुष्ट रावण की करतूत है, जो वर पाकर उन्मादो हो गया है और मेरी शक्ति की परीक्षा करने आया है, अभी उसको उसकी करनी का फल चखाता हूँ । अच्छा तो ले । 

           ( शिव का त्रिसूल गाड़ना , रावण का हाथ दब जाना ) 

रावण  : भगवान त्राहि ! त्राहि ! 

शिव    : बोल अब कहां है तेरा बल ? 

रावण  : क्षमा करो बक्सो अपराधू । दोष त्याग यही है गुण साधू । 

             नारद कीन्ह मोर उपहासा । भेज पठावत मोहि कैलाशा ॥ 

             त्राहि - त्राहि शरणागत लीजो । अभयदान करुणानिधि दीजो । 

पार्वती : नाथ ! इसको अभिमान का फल मिल गया, इसे क्षमा कर दीजिए ।


 शिव    : नहीं प्रिये इसे ऐसा ही रहने दो । 

रावण  : त्राहि - त्राहि भगवन त्राहि ।  

पार्वती : नाथ आप दया के सागर हैं । इसको इसकी करनी का फल मिल गया है । अब इसे क्षमा कर दीजिए । 

शिव    : अच्छा प्रिये यदि तुम कहती हो तो मैं इसे छोड़ देता हूँ । (त्रिसूल उठा कर) ओ दुष्ट जा, तुझे क्षमा कर दिया । फिर कभी ऐसी उद्दण्डता न दिखाना । 

            (रावण का भागना, रावण दरबार)

रावण  : सुनो हे राक्षसों मेरी, सुरों से दुश्मनाई है। 

             दिखाओ त्रास भक्तों को सुरों की मौत आई है।

             करो विध्वंस यज्ञों को, तपस्या धर्म श्राद्धों को। 

             मिले दे ना तबाह होकर तपोबल की नसाई है। 

             कोई मारू कोई छोडूं, जो चाहूं मैं करूं सोई। 

             मुनिन से जाके कर लाओ, यही मन में समाई है । सुनो..... 

रावण  : अपने आधीन कर सब सूरों को, उनसे इन चरणों की सेवा करवाऊंगा । 

              हरिनाम जपेगा जो कोई, उसको यमलोक पहुंचाऊंगा । 

              कहना उनसे कि ईश्वर मैं ही हूं, तुम सब मिलकर मुझे भजो । 

              जप तप और यज्ञ जो है, सब व्यर्थ है यह पाखण्ड तजो । 

रावण  : ये मेरे सूरवीर सरदारों, हमारे बहुत से शत्रु उत्पन्न हो चुके हैं । अब उन्हें मारने का मैं सरल उपाय बताता हूँ । सुनो, तुम इधर-उधर बन्द कन्दराओं में जाकर ऋषि-मुनियों को तंग करो और उनके यज्ञों में विघ्न बाधा डालो । यज्ञहीन होने से सब देवता बलहीन हो जाएंगे और हमारी शरण में आएंगे । तब तुम लोग सम्पूर्ण ब्रह्मांड के राज्य को भोगोगे। 

सब राक्षस : जो आज्ञा महाराज । 

             (जंगल, कुछ ऋषियों का यज्ञ करते दिखाई देना) 

पहला मुनी : मुनी जी यह सामने कैसी धूल उड़ रही है ? 

दूसरा मुनी : यों कहो कुछ विघ्न बाधा होने वाला है ।

तीसरा मुनी : अरे ! यह तो उसी दुष्ट रावण का मुंह काला है । 

चौथा मुनी : 'चुप' वे बहुत निकट हैं । विलीन हो जाओ ।  

            (राक्षसों का प्रवेश) 

राक्षस : हे मुनियों, हम महाराजा रावण के दूत हैं तुमसे राज्य कर लेने आये हैं । 

पहला मुनी : अच्छा तो फिर यह बात है ? लेकिन भाइयों, हम वनवासियों के पास रखा ही क्या है, जो कि कर के रूप में हम आपको दे सकें । क्यों मुनी जो आपका क्या विचार है ? 

पहला राक्षस : नहीं, नहीं तुम्हें कर देना ही होगा । 

दूसरा राक्षस : यदि धन नहीं तो घी ही सही ।

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